रह-रह कर गूंज रही हांक हमारी
श्याम बिहारी श्यामल
यह तो पता है हमारे ग़ज़ल-ओ-नज़्म असर क्या दिखाएंगे
जो महान किताबों से न डोले इनसे कैसे बदल जाएंगे
हरकारे हैं हम दरअसल अपनी ही आदत से अब लाचार
कुछ न कुछ लिखते जाते रोज क्योंकि कहे बगैर न रह पाएंगे
दुनियावी फितरत या वफ़ा-ओ-ज़फ़ा में कहां है नया कुछ भी
किरदार नए मुक़ाम-ओ-अफसाने नए यही तो सुनाएंगे
जिन्हें लगती हो लगती रहे हमारी यह फितरत बेमतलब
हमें क्या पड़ी है या मुमकिन भी नहीं क्या उन्हें समझाएंगे
श्यामल यह भी क्या कम है रह-रह कर गूंज रही हांक हमारी
जो आंखें मूंदे हैं अपनी नज़र से कैसे खुद को बचाएंगे
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