कौन कहां कैसे यहां इत्मीनान से रह पाता
श्याम बिहारी श्यामल
मुमकिन कहां किसी का यहां अंजाम से छिपना था
जो वक़्त था पल-पल उसे भी खुद तिल-तिल मिटना था
कौन कहां कैसे यहां इत्मीनान से रह पाता
खुद की आँखों में तो खुद ही हर सिम्त दिखना था
लोट रहे क़दमों में जो सब फायदे में थे यहां
यह कैसी कामयाबी जहां इस हद तक गिरना था
मुश्किल था हमें किसी भी अपनी बात से मुकरना
उनकी आदत में शुमार बेतकल्लुफ हो डिगना था
श्यामल होने का हक़ करना था हर हाल में अदा
जो देखा-सुना उसे तो बस लिखना ही लिखना था
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