यकीं-ए-रोशनी के वास्ते
श्याम बिहारी श्यामल
चीर कर मुश्किल हालात को आहिस्ते
आ ही जाते हैं सामने कई रास्ते
सूरज से अंधेरे को रियायत कब कहां
हाज़िर वह यकीं-ए-रोशनी के वास्ते
चक्की को आखिर यह अहसास हो गया
वह बहुत घिस चुकी है पीसते-पीसते
इस क़रामात पर पानी को खुद हैरत
परबत का पेंदा काट दिया रिसते-रिसते
श्यामल वक़्त बदल रहा हर पल हर क़दम
प्यार भटक रहा है कैसे रिश्ते-रिश्ते
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15-12-2018) को "मन्दिर बन पाया नहीं, मिले न पन्द्रह लाख" (चर्चा अंक-3186) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वा वाह आदरणीय श्याम जी ... कय खूब लिखा है 👏👏👌 सूरज से अंधेरे को रियायत
जवाब देंहटाएंकब कहां .... आपकी ये पंक्तियां बहुत ही सुंदर 👏👏💐💐