क़ातिल छुपकर बचा पाता था वज़ूद अपना
श्याम बिहारी श्यामल
एक दौर जब फरेब के छूटते छक्के थे
मकान बेशक़ कच्चे लेकिन लोग पक्के थे
क्या मज़ाल कोई झूठा सामने आ जाए
साइकिल थी घंटी थी हनकदार चक्के थे
क़ातिल छुपकर बचा पाता था वज़ूद अपना
लोग उसे ज़िंदा देख अक्सर भौंचक्के थे
दौर-ए-तरक्की ने अज़ब पेश किए मंज़र
बुलंदी पर वह जिनकी आंखों में थक्के थे
श्यामल क्यों लोग यहां अब तमाशबीन केवल
उसूल-ओ-ईमान पर खुलेआम धक्के थे
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