चाह रहे कुछ लोग सब कुछ खाक़ कर देना
श्याम बिहारी श्यामल
यह नासमझी-ए-आम या तारीख़ी भूल है
जो शातिर है कैसे अब वह सबको क़ुबूल है
उन्हीं हाथों को सौंप रहे बागडोर कैसे
लिपटा-सा दिख रहा जिनमें लहू-ए-उसूल है
बागवां है वह या क़ातिल ही दरअसल कोई
जिसके नाम से डरा हुआ हर शज़र-ओ-गुल है
क्यों चाह रहे कुछ लोग सब कुछ खाक़ कर देना
उनके अल्फाज़ से हवा में ज़हर रहा घुल है
श्यामल कैसी-कैसी शक्लें बदल रहा है सच
कौन है जो हरेक बात को दे रहा तूल है
बागवां है वह या क़ातिल ही दरअसल कोई
जवाब देंहटाएंजिसके नाम से डरा हुआ हर शज़र-ओ-गुल है
...वाह