तब तारीख संवरती है
श्याम बिहारी श्यामल
दायरा टूटे बगैर बात कहां बनती है
कहां घड़ी की सुई कभी कहीं पहुंचती हैं
रोज़मर्रे बख्शते कहां गुंजाइश कोई
लीक टूटती है तब तारीख संवरती है
शिकस्त तो शिकस्त, जीत भी कहाँ अलग उससे
सिर पर ताज़ आते यहां दहशत टपकती है
ज़िंदगी के घर और मौसम अजीबोगरीब
बिना बारिश ही यादें दिन-रात टपकती है
श्यामल वक़्त से बड़ा हिसाबी-क़िताबी कौन
एक-एक सांस क़ीमत वसूलती बढती है
एक-एक सांस क़ीमत वसूलती बढती है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-11-2018) को "छठ पूजा का महत्व" (चर्चा अंक-3152) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'