मंज़िल क्यों निढाल पड़ी
श्याम बिहारी श्यामल
लम्हा-ए-क़ामयाबी मुश्किल घड़ी थी
यह मंज़िल क्यों इस क़दर निढाल पड़ी थी
दिल से जो हूक उठी तन-मन हिला गई
खुशी सफ़र की हमारी इससे बड़ी थी
अकेलापन सन्नाटा और मायूसी
सपनीले मुहाने कैसी स्याह कड़ी थी
शबनम-ए-बाग-ए-ज़न्नत यह कैसी
यहां भी यह जैसे आंसू की लड़ी थी
श्यामल कौन चीख रहा हमारे भीतर
शब-ए-माहताब फिर नई हथकड़ी थी
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