हो कोई शाह-ओ-पुरोहित-ओ-इमाम
श्याम बिहारी श्यामल
किसी को तोहफ़ा न कभी कोई इनाम
ज़िंदगी पक्का हिसाब-क़िताब का नाम
किसी पर कभी इनायत न ज़रा रियायत
हो कोई शाह-ओ-पुरोहित-ओ-इमाम
गज़ब अपनी गिनती अपना ही अंदाज़
किसी का भी सफ़र पलक झपकते तमाम
हम गज़ल-नज़्म रचें या यूं गुनगुनाएं
सोचिए उसे भी इन सबसे क्या काम
जिसने दिए ताज़-ओ-लाल क़िला श्यामल
उसे भी मिल न सकी अलग से एक शाम
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