कुनबा-ए-शैतां अब मैदानछोड़ था
श्याम बिहारी श्यामल
एक शख्स जो शुरू से ही हंसोड़ था
क्यों उसका ज़वाब हर अब मुंहतोड़ था
कौन दबा पाता उसे पहले की तरह
सवाल का उसके कहां कोई जोड़ था
बोलने लगता तब तो गूंज ही उठता
मंज़र-ए-चुप्पी भी ग़ज़ब बेजोड़ था
बे-दलील बदहवास बेचैन हो उठे
किसी के पास कहां अब कोई तोड़ था
किसने कब देखा था उसे जलते हुए
सुलगना-धधकना आज ताबड़तोड़ था
श्यामल को देख ज़ुल्मत उदास खड़ी थी
कुनबा-ए-शैतां अब मैदानछोड़ था
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