पुस्तक-समीक्षा 0 श्यामबिहारी श्यामल
''...अपने देश में आम जनता तक बातों को ले जाने की दृष्टि से, पुस्तकों से दूर कर दिए गए लोगों तक विचारों को पहुंचाने के लिए लिखना जितना जरूरी है, उससे ज्यादा जरूरी है बोलना। स्थापित और स्थावर विश्वविद्यालयों की तुलना में यह जंगम विद्यापीठ ज्यादा जरूरी है। नामवर इस जंगम विद्यापीठ के कुलपति हैं। इस विद्यापीठ का कोई मुख्यालय नही होता। यह जगह-जगह जाकर ज्ञान का वितरण-सत्र आयोजित करता है। यह है-- सुरसति के भंडार की अपूरब बात। इसे किसी की नजर न लगे... '' 28 मई 1988 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के परिसर में डा. नामवर सिंह के अभिनंदन समारोह में की गई जनकवि नागार्जुन की यह टिप्पणी प्रख्यात आलोचक के महत्व को नए ढंग से पारिभाषित तो करती ही है, उन्हें 'वाचिक परंपरा का आचार्य' कहकर मजाक उड़ाने वालों के ज्ञानचक्षु में एक झटके से अंगुली भी घोंप देती है।
इस तथ्य से भला कौन इनकार कर सकता है कि नामवर सिंह हिन्दी साहित्य के इतिहास में ऐसे
पहले व्यक्तित्व हैं जिन्होंने साहित्य के समालोचन को समय-समाज का
सिंहावलोकन की वृहत्तर भूमिका प्रदान की। उन्होंने आलोचना को
सर्जनात्मक उत्पादों के धर्मकांटे की पारंपरिक छवि से मुक्ति दिलाई और इसे संसार-समाज
या मानव जाति की सर्वसमीक्षा के निर्भीक, तटस्थ और मजबूत मंच का आकार
प्रदान किया। उन्होंने साहित्य के प्रकाश को पुस्तकों की बंद जिल्दों की हद में नहीं, देश-समाज की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और विमर्श की हर संभव विचार सरणि वाले प्रिज्म में गुजार कर व्यापक परिदृश्य में विश्लेषित किया है। इस दृष्टि से उनके लिखे और बोले को समग्रता में समेटकर देखें तो उनका बहुपरिधि-बहुआयामी
आलोचना-कर्म विराट है। यह यों ही नहीं है कि उनके मुरीदों से कहीं बड़ी संख्या निंदकों की है किंतु समान रूप से सबको हर संदर्भ-विशेष पर उनके ही विचारों-व्याख्यानों की प्रतीक्षा रहती है। आज भोपाल या पटना तो कल लखनऊ सा जयपुर। सोशल नेटवर्किंग साइटों के इस दौर में जबकि हर संदर्भ पर प्रत्येक जन-भावना त्वरित रूप में सार्वजनिक होती चल रही है, सब जगह उन्हें सुनने पहुंचने वालों की जिज्ञासा या प्रतिक्रिया लगभग रोज व्यक्त होती देखी जा रही है। ऐसे लोगों में साहित्य ही नहीं दूसरे अनुशासनों के जिज्ञासु भी होते हैं जो खुले रूप में अपनी सहमति या असहमति साझा करते हैं। कौन ऐसा दिन होगा जब 'फेसबुक', 'ट्विटर' और 'गूगल क्रोम' आदि जैसे विश्वव्यापी खुले अभिव्यक्ति-मंचों पर नामवर को लेकर कोई न कोई गर्मजोश चर्चा या विमर्श नहीं दिख जाता !
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि बौद्धिक और सर्जनात्मक परिदृश्य पर आज नामवर जैसी व्यस्ततम और केंद्रीय भूमिका में है, कम से कम हिन्दी साहित्य में यह अपूर्व स्थिति है। ऐसा विरल व्यक्तित्व कैसे बनारस के निकट चंदौली के एक पिछड़े इलाके के अति सामान्य किसान परिवार से निकला और कैसे संभव हुई उसकी रोमांचक निर्मिति, संघर्षों से भरी किंतु अंतत: गौरव के अहसासों से भर देने वाली यह गाथा प्रस्तुत करती है भारत यायावर की ताजा कृति '' नामवर होने का अर्थ ''। हिन्दी साहित्य के मंच पर करीब छह दशक से अपनी बौद्धिक छटा बिखेर रहे नामवर को कौन-से जीवन-मूल्य ऊर्जा-चमक और अक्षत प्रखरता प्रदान करते हैं, इसका अंदाजा 'काशी के नाम' वाले अध्याय से लगता है। प्रसंग है 1989 का। अनुज काशीनाथ सिंह ने बीस हजार का ड्राफ्ट भेजा था। नामवर ने इसे वापस करते हुए पत्र लिखा, '' ...तुम्हारा बैंक ड्राफ्ट अपने हाथ में लेकर काफी देर तक सोचता रहा। सिर-पैर कुछ भी समझ में न आया। फिर तुम्हारी चिट्ठी आई जिसमें 'उऋण न होने' की बात है ! तक भेद खुला। हंसी आई। इस हंसी में कितना क्रोध है, कितना दु:ख, नहीं जानता। हंसी ऋण-शोध पर नहीं, तुम्हारे ऋण-बोध पर। कैसा ऋण ? किसका ऋण ? हमलोग के यहां तो तीन ही ऋण माने गए हैं- देव-ऋण, पितृ-ऋण और ऋषि-ऋण अथवा गुरु-ऋण। वह जमीन तो इनमें से किसी में नहीं आती। वह उतनी ही तुम्हारी है, जितनी मेरी। क्या मैं उसे लादकर उस लोक में ले जाता। ' नैकेनापि समं गता वसुमति भुंजत्वया यास्यति ' - यही तो भोज ने कहा था। अपने साथ कोई भी पृथ्वी को नहीं ले गया। मैंने तो अपना बोझ हल्का किया। यही चाहता हूं कि अंतिम यात्रा के समय मन पर कोई बोझ न रहे। तुमने शुरू से मेरा बोझ हल्का किया है। फिर अब क्यों हाथ खींच रहे हो ? '' कहना न होगा कि साहित्य में ख्यात 'मार्क्सवादी आलोचक' नामवर के व्यक्ति-सत्य का यह अलक्षित आंतरिक स्वरुप है, जो अपने खांटी भारतीय गृहस्थ-सत्य को अक्षत बनाए हुए है। यही उनकी विशेषता भी है और ताकत भी।
भारत यायावर ने पुस्तक के 344 पृष्ठों को घटना-क्रमों के हिसाब-किताब से नहीं भर दिया बल्कि 'वाद-विवाद और संवाद' के पर्याय माने जाने वाले प्रख्यात आलोचक के अधिकतर विमर्श-संदर्भों को संबंधित पूरे परिदृश्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस लिहाज से पैंतीस उपशीर्षकों में प्रस्तुत अध्यायों में 'विवेचना गोष्ठी के नामवर', 'परिमल की वह गोष्ठी और नागार्जुन का संग-साथ' और 'नामवर, नवल और अग्निस्नान' आदि जैसे खंड मूल्यवान हैं। लेखक ने ऐसे खंडों में उल्लेखित संदर्भ का पूरा विवरण प्रस्तुत कर तत्कालीन पूरा परिदृश्य जीवंत कर दिया है। इन खंडों में भारत यायावर के उस खोजीराम स्वरुप की स्पष्ट झलक मिलती है जिसके बूते हिन्दी साहित्य को 'फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली' और 'महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली' जैसी बड़ी उपलब्धियां हासिल हो सकी हैं। 'विवेचना' वाले खंड में 1965 में हुई उस संगोष्ठी का सविस्तार विवरण उपस्थित किया गया है जिसमें कविवर सुमित्रानंदन पंत और प्रख्यात साहित्यकार अमृत राय से लेकर अनेक ख्यात रचनाकारों ने डा. रामदरश मिश्र के आधार-आलेख पर प्रतिक्रिया के बहाने हिन्दी आलोचना के नए स्वरुप पर आक्षेप पर आक्षेप किए थे जबकि नामवर ने अपने वक्तव्य में यह स्थापित किया कि कैसे नई आलोचना पुरानी की तुलना में विस्तारित दृष्टि से संपन्न, वैज्ञानिक और अधिक उन्नत होकर पेश हो रही है। सभी साहित्यकारों के बयानों को प्राय: पूरे-पूरे पृष्ठ-भर का स्थान देते हुए अमुक संगोष्ठी का जैसे पूरा दृश्य ही रच दिया गया हो। महत्वपूर्ण यह कि आधी शताब्दी पूर्व के इस परिदृश्य में भी नामवर सिंह की तेजस्विता और विमर्शात्मक केंद्रीयता आज की पीढ़ी को चकित कर सकती है।
'नामवर, नवल और अग्निस्नान' खंड में पटना ( बिहार ) में 27-28 दिसंबर 1970 में हुए 'युवा लेखक सम्मेलन' का सोलह पृष्ठों का विवरण भी ऐसी ही प्रस्तुति है जिससे संदर्भित पूरा परिदृश्य जीवंत हो उठता है। इसमें तब के अधिकांश रचनाकारों की भागीदारी हुई थी। दो दिनों तक चली चार गोष्ठियों की श्रृंखला में पहली की ही अध्यक्षता नामवर सिंह ने की थी जिसका विषय था 'युवा लेखकों की रणनीति'। दूसरी गोष्ठी का विषय था 'कविता : सही भाषा की तलाश', जिसकी अध्यक्षता कुमारेंद्र पारस नाथ सिंह ने की थी। 'कहानी : समकालीन आदमी को पारिभाषित करने का एकमात्र जरिया' विषय वाली तीसरी गोष्ठी की अध्यक्षता दूधनाथ सिंह ने की थी। चौथी गोष्ठी ' आलोचना क्यों ' विषय पर एकाग्र थी जिसकी अध्यक्षता अशोक वाजपेयी ने की थी। ऐसे संदर्भ-विवरणों ने पुस्तक को शोधस्तरीय प्रामाणिकता से भरकर गुरुत्व प्रदान किया है। उसी तरह चित्रों वाले खंड में भी ऐसी तस्वीरें हैं जो यह गवाही देती हैं कि अब से आधी शताब्दी से भी पहले तब के शीर्षस्थ साहित्यकारों के बीच नामवर सिंह की उपस्थिति साधारण नहीं थी। 10 मार्च 1952 को बनारस के साहित्यिक संघ के दशाब्दी समारोह पर लिये गए दो ऐसे ही समूह-चित्र यहां संकलित हैं जिनमें दर्जनों साहित्कारों के बीच नामवर एक में हजारी प्रसाद द्विवेदी और धर्मवीर भारती तथा दूसरे में सुमित्रानंदन पंत और आचार्य द्विवेदी के साथ केंद्र में बैठे दिखाई पड़ रहे हैं। यह तथ्य नई पीढ़ी को ऊर्जा और प्रेरणा से भर सकता है कि नामवर ने यह सारी उपलब्धि कठिन अध्ययन-श्रम और प्रखर वैचारिक-बल से हासिल की है।
हिन्दी साहित्य में आज नायक जैसी
गरिमा रखने वाले नामवर के जीवन में भीषण उतार-चढ़ाव और संघर्षों का
ताप-उत्ताप भी भरे पड़े हैं किसी दुर्द्घर्ष नायक की कहानी की तरह ही।
बीएचयू में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की छत्रछाया में उनके
प्राध्यापकीय जीवन का आरंभ और उसके बाद इस परिसर से उनका निष्कासन। सागर
विश्वविद्यालय और जोधपुर में भी ऐसे ही तिक्त अनुभव किंतु बाद में जेएनयू
में उनकी ऐतिहासिक पारी। उसी तरह शुरू में नामवर के अंकुरे कवि-रूप और
उसकी उमंग किंतु जल्द ही इसका असमय क्षरण। इसके तत्काल बाद आलोचक-रूप में
उनका उल्लेखनीय उदय और देखते ही देखते साहित्य के केंद्रीय व्यक्तित्व
के रूप में परिणति। भारत यायावर ने इस पूरी नामवर-कथा को मूल व्यथा और
यथासंभव यथासंवेदना रचकर प्रस्तुत कर दिया है। नामवर
ने स्वयं जितना लिखा-कहा है, उन पर अब तक उससे कहीं ज्यादा प्रकाशित हो
चुका है। पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान प्रमुख पत्रिकाओं ने उन पर अंक
केंद्रित किए हैं तो विभिन्न कोणों से अनेक किताबें आ चुकी हैं और यह क्रम
आज भी जारी है। इस किताब के तत्काल बाद
उन पर एक 'कोश' तक केंद्रित हो चुका है किंतु अन्य किसी के भी मुकाबले यह
पुस्तक इसी अर्थ में सर्वथा भिन्न और जरुरी है कि लेखक ने इसे एक साथ
किसी उपन्यास-सी भाषिक रोचकता दी है तो प्रामाणिकतम ग्रंथ की तरह पुष्ट
शोधपरकता या सुदृढ़ तथ्यात्मकता भी।
पुस्तक का नाम : नामवर होने का अर्थ ( जीवनी ) : भारत यायावर, किताबघर प्रकाशन, कुल पृष्ठ 344, मूल्य : पांच सौ रुपये ( सजिल्द ), प्रकाशन : 2012
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श्याम बिहारी श्यामल, पता : सी. 27 / 156, जगतगंज, वाराणसी 221002 ( उप्र ), संपर्क नंबर 0७३१११९२८५२ // समीक्षक का संक्षिप्त परिचय : 1998 में उपन्यास 'धपेल' ( राजकमल प्रकाशन) और 2001 में 'अग्निपुरुष' ( राजकमल पेपरबैक्स) का प्रकाशन। लगभग दस साल के श्रम से महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित उपन्यास 'कंथा' का लेखन, जिसका 'नवनीत' में धारावाहिक प्रकाशन! अब यह पुस्तक रूप में शीघ्र प्रकाश्य!पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में नियमित लेखन। ब्लॉग : श्यामबिहारीश्यामल.ब्लॉगस्पॉट.कॉम। वेब साइट : लिखंत पढ़ंत।
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