क्यों हम उसके साथ बह रहे थे
श्याम बिहारी श्यामल
तरक्क़ी दिन दूनी रात चौगुनी कर वह रहे थे
जो रात को दिन व दिन को रात खुलकर कह रहे थे
वक़्त का सबसे खतरनाक घालमेल किसे न पता
हम और आप भी कैसे सब चुपचाप सह रहे थे
दरिया ने बदल ली थी चाल देखते ही देखते
यह समझते हुए क्यों हम उसके साथ बह रहे थे
हमारे हाथ में था मंज़र-ए-ज़हां अब मुक़म्मल
लेकिन दिमाग से हम किस ज़माने में रह रहे थे
हमारे ही सामने हाज़िर थे कई-कई श्यामल
वह सब चमक रहे थे जो अब तक भयावह रहे थे
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