शाख-ए-हक़ीक़त कहां
ख्व़ाब कोई अभी खिला
श्याम बिहारी श्यामल
अभी तक अपनी ही जगह है हर शिक़वा-गिला
गधे को घोड़ा बनाने का नुस्खा नहीं मिला
इल्म-ओ-क़ोशिश-ए-इंसा नाकाफी सारे
क़ायदा-ए-क़ुदरत जैसे बेगुज़र एक क़िला
गो कि कुछ और ही हमारी भी ख्वाहिश ठहरी
तौर-ए-क़ायनात कहां अपनी जगह से हिला
हमने ज़हां एक चाहा उल्फ़त से लबरेज़
गुल-ओ-इश्क़ का बेअंत-सा बेखौफ़ सिलसिला
श्यामल होने हक़ अदा हम सदा करते रहे
शाख-ए-हक़ीक़त कहां ख्व़ाब कोई अभी खिला
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