मौत मूरख अपनी औक़ात समझती ही नहीं
श्याम बिहारी श्यामल
ज़िद-ए-ज़िंदगी यह जबरदस्त, थमती ही नहीं
मौत मूरख अपनी औक़ात समझती ही नहीं
उसे भरम कि यह महज़ अश्क़-ओ-ज़ज्ब के क़तरे
ग़ज़ल अज़ल है, भीतर उसके उतरती ही नहीं
चुप्पियां हैं कि मुंह बंद रखने का नाम न लें
लफ्ज़-ओ-मानी संग शोर की छनती ही नहीं
नाराजगी टिकती कहां ज़रा भी मुंह फुलाए
बात कि मुक़म्मल बात अपनी रखती ही नहीं
श्यामल क्या खेल ग़ज़ब चल रहा सामने मेरे
सफ़ेद दिन रुकता नहीं, काली रात अड़ती नहीं
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अज़ल = नित्यता,सनातन
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अज़ल = नित्यता,सनातन
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