अज़ब मुर्दा था गुलगुलापन गलीचे का
श्याम बिहारी श्यामल
मुमकिन कहां हलक में सच दबाए रखना
वक़्त मुझे अपना हमसफ़र मत समझना
कम न की क़ोशिश सयानों ने सिखाने की
छोड़ न सका सच मैं ज़ोर देकर कहना
कहते थे ओढ़ लूं मैं चुप्पी की चादर
क़ुबूल न हुआ खुद को यूं ख़लास करना
क्या था अंजुमन वह और क्या सामईन
ग़ज़ब रियाज़ उनका गुपचुप चुप रहना
मुर्दा था अज़ब गुलगुलापन गलीचे का
हमने मांगा ज़िंदा खारों पर चलना
श्यामल ज़िन्दगी को तिज़ारत कहें कैसे
जंचा नहीं कभी हिसाब पक्का रखना
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